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Wednesday, 18 March 2020

यह प्रेम नहीं


(इस कविता में जो लिखा है उसका अर्थ तो समझिए ही साथ ही साथ उसके उलट जो आज के युग में होता है वह भी सोचिये)
(कविता को लयबद्ध पद्य की शैली में लिखा है, यदि उस लहजे से पढ़ा जाए तो अलग आनंद मिलेगा 🙂)

काल का चक्र जो चलता है,
किसी के लिए नहीं ये रुकता है,
किसी को ऊंचाई पर पहुंचाता है,
किसी को पैरों तले कुचलता है।


दुनिया में गलत बहुत सी रीति हैं,
क्यों समझते नहीं जीने का नाम युद्ध है, न कि प्रीति है,
संघर्ष की अग्नि में ध्यानमग्न जो होता है
सही समझता है - जीने का अर्थ संघर्ष है, अंधा प्रेम एक कुरीति है।
अब ठहरो! क्या इसका अर्थ जानना चाहोगे?
क्या इस कथन की गहराई को नापना तुम चाहोगे?
यदि हां तो सुनो, सोचो और आत्मदर्शन भी करते जाओ।
जो अब तक समझते थे उसको किनारे करते जाओ।


प्रेम एक शाश्वत विषय है,
तपते जीवन में आश्रय है,
मगर प्रेम का नाम जब लेते हो,
जीवन में क्या क्या कहते और करते हो।
इसकी व्याख्या तो अब धुल सी गयी है,
इस युग के अंधड़ से ज्योत तो इसकी बुझ सी गयी है।


वासना में बंधकर जीना प्रेम नहीं,
किसी को मुश्किलों की मझधार में छोड़ना प्रेम नहीं,
क्या सड़कों पर शाम को भूखे बच्चों को तुमने देखा है?
हाथों में हाथ डाल हंसते नज़रअंदाज़ करते उन सड़कों पर टहलना प्रेम नहीं।
नहीं है प्रेम अपनी शामों को व्यर्थ करना मदिरा अंकित जज्बातों पर,
अरे प्रेम तो है दुश्मन को ले कर मर मिटना भारत की इस माटी पर।
और जिसने सिखाये तुमको इस जमाने के अर्थ हैं उसको ठुकरा दो,
उनके पढ़ाये हुए उन खोखले आदर्शों को तुम दफना दो।
प्रेम नहीं बल्कि अपनापन साधारण मनुष्यों की अभिलाषा है,
प्रेम तो केवल कुछ वफादार जीवों की ही भाषा है।
इस आधुनिक युग का "प्रेम" बस एक ढोंग एक तमाशा है,
प्रेम का सत्य तो बस माता-पिता के कर्मों की परिभाषा है।
प्रेम नहीं समृद्धि में अग्रसर हो मूल्यों को भुलाते जाओ,
और प्रेम नहीं माता-पिता के परिश्रम से कमाए धन को लुटाते जाओ।


प्रेम है जो इस धरती के लिए ही बस जीते हैं,
प्रेम है वो जिनके दिन बस दूसरों के लिए ही बीते हैं,
प्रेम है जो समाज के उद्धार के लिए विष का प्याला पीते हैं।
प्रेम तो आपके सरलतम कार्यों में भी दिखता है,
प्रेम नहीं फेसबुक-इंस्टाग्राम की दुकानों पे बिकता है,
संघर्ष कर स्वयं को मजबूत करना प्रेम है एक,
अपने जीवनसाथी के त्यागों को मानना भर भी प्रेम है एक,
परिजनों की डांट को चुपचाप सुनना भी प्रेम है एक,
हर सुबह अपने-अपने कार्यालयों की तरफ निकलते हो
वृद्धों के लिए अपनी गाड़ी को रोकना भी प्रेम है एक,
सड़कों पर निकलते हुए वो वीर जवानों से भरी गाड़ियां देखी हैं?
नज़र उठाकर कुछ पलों के लिए सलाम करना भी प्रेम है एक।


रोज़ाना के जीवन से हताश जब हो जाते हो,
रात को कराह लेकर जब तुम सो जाते हो,
ऐसी दिनचर्या जीने में भी बलिदान है एक,
आपके कर के पैसों से देश चलता है, यह भी प्रेम है एक।


Tuesday, 25 February 2020

सब चुप क्यों हैं?

(कल्पना करिए आप 12-15 वर्ष पहले के भारत में हैं। जैसे जैसे मैं समय में आगे बढूंगा आप समझते जाएंगे)

रोज़ाना चलते जीवन के यापन में,

सब चुप क्यों हैं?

अंतर्द्वंद के स्थापन से भी,

सब चुप क्यों हैं?

 

सर उठा कर देखते हैं जब लोग,

पता लगता है कि रास्ते तो अब खाली है।

खुली आंख से देखते दुनिया को,

संसार की हालत भी निराली है।

आकाश में लोभ के पंछी दिखाई पड़ते हैं,

अपनों के परिवेश में पराये दिखाई पड़ते हैं,

चहुँ ओर स्वार्थ की धुंध का विस्तार है,

मंदिरों की जगह मैखाने दिखाई पड़ते हैं।

सत्य के वाक्यों में बहाने दिखाई पड़ते हैं,

झूठ की हवा भी क्या चली है,

मित्रों में अब अनजाने दिखाई पड़ते हैं।

कौन कहे सत्य और निष्ठा के लक्षण सुप्त क्यों हैं।

जानते हुए भी न जाने सब चुप क्यों हैं?

 

भारतवर्ष के भीतर भी दुश्मन हैं,

द्वेष और क्रोध से भरे ये जाते हैं,

क्षति पहुंचती है जब देश को,

मुख खोल ये गधे-सा मुस्कुराते हैं।

राष्ट्रहित की बात जब होती है,

झूठ फैला ये दंगे भड़काते हैं,

आतंकियों के मरने पर ये,

काली पट्टी बांध संसद में आते हैं,

जी भर के ये आंसू बहाते हैं,

और वर्षों तक बिरयानी उन्हें खिलाते हैं,

AFSPA और TADA जैसे कानून भी हटाते हैं।

तब, आतंकी इतने मुक्त क्यों थे?

ये देख उस समय सब चुप क्यों थे?

 

जब बढ़ा था अंधकार बहुत,

सरकार में आया था अहंकार बहुत,

जनता ने बाहुबल दिखाया था,

लोकतंत्र को सार्थक करवाया था।

उद्दंडता की जब पराकाष्ठा थी,

वंशवाद से मुक्ति की आकांक्षा थी,

विधान-पटल पर सर्द शीत छाई थी,

सरकार जब वामपंथ की अनुयायी थी,

भूमि आतंकित हो दहलाई थी,

पूरे देश की बात तो छोड़िए,

सिर्फ मुम्बई ही कई हमलों से थर्राई थी।

सेना को ज्यादातर निष्क्रियता के आदेश क्यों थे?

नेतृत्व करने वाले तब चुप क्यों थे?

 

संसार का यही नियम है मित्र,

बदलाव ही केवल स्थिरता है मित्र,

वर्षों की विचारधारा से जब अति हो जाती है,

उन्नति की राह में वह अनुपयुक्त हो जाती है।

बदलाव से वही लोग तो डरते हैं,

लूटपाट के स्थापित साधन जिनके हाथ से फिसलते हैं।

विकास के लिए बस इतनी बात ही काफी है,

सिर्फ सौ अपराध की माफी है,

नेतृत्व कोई भी हो -

जब सत्ता शिशुपाल बन जाएगी,

जनता से माफी नहीं वह पाएगी,

द्वेष में दुर्व्यवहार बढ़ेगा जिसका,

सुदर्शन से सर कटेगा उसका।

 

देखें, देखें असत्य के लिए वे कितनी आवाज़ उठाएंगे,

देखें उनके चेले कितनी गोली चलाएंगे,

देखें वे कब तक रक्षकों का लहू बहा पाएंगे,

देखें वे कितने जनों को गुमराह कर पाएंगे,

देखें अपने ढकोसलों से कब तक - "आज़ादी" के नारे लगाएंगे,

देखें वे कब तक पत्थर उठाएंगे,

देखें वे कब तक बसों को जलाएंगे,

देखें वे कितनी पुलिस चौकियों में आग लगाएंगे,

देखें भले लोग भी, आखिर कब तक शांति का पाठ पढ़ाएंगे,

देखें हम सब भी आखिर, कब तक चुप रह पाएंगे।

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