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Tuesday, 16 March 2021

अभिमन्यु


वीरता के जो होते मिसाल हैं,
स्वार्थ, लोभ दुर्गुणों से अधिक विशाल हैं,
दुर्घटनाओं में न वे मुरझाते हैं,
कठिनाइयों को हंस कर गले लगाते हैं।





वीरता भी कई प्रकार की होती है,
जैसे सागर में असंख्य मोती हैं,
वे संसार भर में पूजे जाते हैं,
समाज के आदर्श कहलाए जाते हैं।





एक उदाहरण लोकप्रिय वह सही,
द्वापर की वह कथा कही-सुनी।
साहस की जो पराकाष्ठा है,
जो स्वयं आदि वीरों की महत्वाकांक्षा है।





जो खुद को बलिदान कर सकते हैं,
सब उन पर अभिमान कर सकते हैं,
जान हथेली पर रखकर
न्योछावर खुद को कर्तव्य पर कर,
जीवन की चिंता उन्हें नहीं होती है,
देख शत्रुओं की आँखें विस्मित होती है।









उस काल विपत्ति अत्यंत विशाल,
न रहता युधिष्ठिर के सर पर ताज।
क्या होता अगर मुकरता वीर वह,
लगता अगर परिणाम का भय?





पांडव न कभी विजयी होते,
आजीवन फिर किसी वन में सोते।
द्रौपदी कौरवों की दासी होती,
खुले केश लिए मुक्ति की अभिलाषी होती।
भीम की शपथ न पूरी होती,
अन्याय की न्याय पर विजय होती।
फिर चाहे कवच-कुंडल इंद्र मांग लाते,
या श्रीकृष्ण विश्वरूप दिखलाते।
यह परिणाम होता मगर जब,
अधर्म को अभिमान होता सहर्ष तब।





इस विश्व का वह रूप विशाल,
केशव के स्वरूप का सुक्ष्म भाग,
जन्म लेते कई वीर यहां,
कर्मों से विश्वगुरु कहलाते हैं,
सीधे बैकुंठ धाम को पाते हैं।





आखिर कूद पड़ा वह रण में जा कर,
विजय-पराजय की चिंता न कर,
आवश्यक हो गया जान गंवाने को,
अपनी सेना विनाश से बचाने को,
पांडवों को जीत दिलाने को,
अधर्म पर धर्म की विजय पाने को।





इतना अभिमन्यु को बोध था,
बाकी योद्धाओं के मुकाबले
भले ही बालक वह अबोध था -
की जब अपनों के साथ बेइमानी होती है
हार पर विजय पानी होती है
परिजनों को जीत दिलानी होती है
अधर्म की जड़ें काटनी होती है
जब प्रभु की बात सार्थक होनी होती है -
तब अपने प्राणों को शस्त्रों में भरकर,
कर्म की वेदी पर सर रखकर
समर-कुंड में शौर्य-भाव की ज्वाला जल रही होती है,
धर्म रक्षा के लिए खुद की आहुति देनी होती है।





कूद पड़ा वह वीर योद्धा बड़े विकट उस जाल में,
वह 'चक्रव्यूह' कौरवों ने बिछाया विध्वंस के खयाल से।
चक्रव्यूह की रचना को तोड़ उसे अंदर जाना आता था,
मगर नहीं बतलाया मुक्त हो बाहर न आ पाता था।
कर्तव्य की वेदी पर शीश कटाना स्वीकार था,
धर्म की रक्षा हेतु लड़ना उसका अधिकार था।





क्या होता अगर मना कर जाता वीर वह,
हाथ जोड़ कह जाता "हिंसा नहीं करूंगा यह"?
या कह देता की उसका कोई सरोकार नहीं,
"गुण-अवगुण, धर्म-अधर्म, सम्मान-अपमान, अधिकार-अत्याचार आदि -
सब तुम्हारे, पर मेरे लिए ये सब साकार नहीं"?
धर्म हेतु लड़ने को उत्पीड़न नहीं कहते हैं,
आत्मरक्षा और सम्मान के लिए शस्त्र उठाना -
विधिमान्य है, आतंक न इसको कहते हैं।
वर्षों के अत्याचारियों को भुगतना ही पड़ता है,
सर्पों के विषैले फन को कुचलना ही पड़ता है।





आहुत हुआ वह वीर समर में,
वह समय भी आया था,
हर नियम को तोड़ युद्ध के
महारथियों का मन बालक की हत्या से हर्षाया था।
पश्चात इसके, युद्ध क्षेत्र में हर नियम टूटे थे,
दोनो पक्षों के तीखे बाण,
अब रात्रि में भी छूटे थे।
अधर्म के साथ युद्ध में हर कायदा छोड़ना पड़ता है,
लोहे को आखिरकार, लोहे से ही काटना पड़ता है।





सत्य को सर्वोपरि रखने त्रेता में श्रीराम थे,
और धर्म की स्थापना करने द्वापर में घनश्याम थे।
त्रेता में प्रभु ने स्वयं समस्त राज्य छोड़ दिया,
और महाभारत के रण ने अधर्म का रथ तोड़ दिया,
अनेक योद्धाओं ने इस युद्ध में जगत को आदर्श दिया,
मगर अभिमन्यु का कुरुक्षेत्र में ही वह बलिदान था
जिसने युद्ध की दिशा को धर्म के पक्ष मोड़ दिया।


Wednesday, 17 February 2021

A Thing called Hope


Those times of chaos, when, your mind's berated.
That wilderness grows, overpowering,
You venture about, lost, misdirected,
Deeper in the woods;
Deeper! Steeper!





But beware, the deeper you go,
more the light fades
and the gloom transcends,
from that foreboding moderate,
to the despondent melancholy.
The fire foes out,
the ashes remain, smouldering.





But fear not, O' brave heart,
the ashes will smolder,
Forget, and on.
Cease them, you know them.
These are the thoughts,
that floats you on;
on those waters deep, where
you get smothered.
Or in those woods where,
the silence is stifling
and this predator looms about
in the shadows, and,
you hear the beating,
the grafting rhythm of your heart.





But listen, O' valiant soul,
there may be no light,
to guide you back to
your isle of joy, of happiness,
and away from these woods of loathing
from these waters of depression, of sadness.





But there always is,
that path you traversed,
and there will always be
A thing called Hope.


Monday, 28 December 2020

Life on Earth


If ever there will be a world,
where water will hold no life,
and when poured in a glittering bowl,
it will not be nectar but a knife.
And when there will come such a stage,
when the mornings will have no chimes
even when the bells were rung,
a dreary cacophony all the time.





The noons then be filled by scorching heat,
searing new wounds on barren soil,
blazing over the burnt out remains,
and earth covered with grime and boils.
The mist will have no place to roam,
nor will it moisten any yellowing leaves,
at that time no flower will bloom,
there will just be smoke from dead-burning trees.





The evenings will have no time to adjust,
for the silence that will stray the grounds,
no shouts of joy or lamenting cries heard as such,
and sand castles will be just rocky mounds.
There will be no prayers no bowing heads,
no pain will there be, but also no joy,
no cooing cribs, no old time beds,
no miracles of birth and noone grieving the dead.





When this will come to pass,
that the sun will burn and not shine,
the land will be burnt-blackened rocks,
the ocean - just a vast lifeless brine.





At that time too the earth will be round,
and it will keep revolving without a sound,
the moon will keep an impassive gaze,
the stars will overwatch in a daze.
At that time it will take a few years,
which are nothing in this big cosmic gear,
nature will play its role on this grand-a-stage,
and life will again surely find its way.





What are we now to learn from this?
That, we are just Minuscule in the scheme of things,
even when there is nothing one can find,
something will be born from what's left behind.
And life will again take its place,
and earth will regain its healthy tone,
the oceans will spill and land will breathe,
and we will again learn to live by striking stones.


Wednesday, 23 September 2020

अहिल्या


इस धरा की बात है खास
खुद भगवान उतरे यहां सबके साथ।
जब कभी अंधकार घिर आता है,
मानव नीचे गिरता जाता है,
भूमि से हरि को ही पुकारता है,
अधर्म से मुक्ति को अकुलाता है।

त्रेता में जब यह नाद हुआ,
पाप से सत्कर्म जब बर्बाद हुआ
भीक्षण आंधी उड़ती आती थी,
सात्विकता नष्ट कर ले जाती थी।

ऋषियों का जीना दूभर हुआ जाता था,
पापियों का अठ्ठाहस गूंजता जाता था,
कोई महात्मा कहीं आसरा न पाता था,
रावण से सम्पूर्ण त्रिलोक थर्राता था।

यह देख हरि मुस्काये थे,
धरती पर मनुष्य रूप में आये थे,
ऋषिगण फूले न समाये थे,
स्वयं ब्रह्मा जिनको शीश नवाये थे।
वो जो कण-कण में बसते हैं,
जिनका नाम स्वयं महादेव जपते हैं।

किन्तु फिर भी कई मानव अज्ञानता वश,
इस पुण्य कथा का फैलाते अपयश,
असत्य, अधर्म के जो अनुयायी हैं,
स्वयं नीचता और कलियुग की परछाईं हैं।

परंतु ज्ञानी कभी अधीर न होता है,
राम नाम से जागता है और
राम नाम से सोता है।
यह ऐसा महाकाव्य है एक,
अनेक धर्ममार्ग का निश्चल भाव है एक।

जो सुनता उनकी कथा को है,
भूल जाता अपनी व्यथा को है,
भावविभोर उनके चरित्र का गुणगान करता है,
अहम का त्याग निःसंकोच कर उठता है।

मगर फिर भी कई असमंजस में आते हैं,
मूलतः कथाओं से अनभिज्ञ हो,
गलत समझते और समझाते हैं।

आज देखेंगे अहिल्या की कथा की जो सच्चाई थी,
विश्वामित्र ने मिथिला की राह में श्रीराम को सुनाई थी।
तो आगे की बात को समझियेगा,
फिर भी कोई प्रश्न रहे तो कहियेगा।

माया से जो कुछ मनुष्य पाता है,
उसका दोहरा चरित्र भूलता जाता है।
प्रेम, सुख, सुंदरता, ज्ञान, बल आदि सदाचार, से
जन्मते हैं कामना, भय, लोभ, निर्लज्जता, अहंकार।

तो आगमन करें कथा का जैसे सब करते थे,
मिथिला नगरी के पास ही ऋषि गौतम रहते थे।
बड़े सदाचारी, ज्ञानी, प्रभु के ध्यान में मग्न रहते थे,
सप्तऋषियों में एक, धर्म मार्ग पर अड़े थे।
सत्कर्म, ज्ञान, गुण, भक्ति हर तरह,
आम लोगों से वे बहुत बड़े थे।
एक आश्रम था -
अहिल्या से प्रणय सूत्र में बंधे थे।

लो ध्यान से अब आगे सुनो,
आज पूरी कथा समझाता हूँ,
श्रीराम के चरित्र पर लांछन लगाते
कुछ नासमझों की शंका मिटाता हूँ।

अहिल्या जब एक कुमारी थी,
ब्रह्मा जी की पुत्री थी,
वरदान से आजीवन परम् सुंदर नारी थी।
देव, असुर, ऋषिगण आदि -
सब विवाह के अभिलाषी थे,
अधिकांश सिर्फ बाहरी सौंदर्य पर मोहित हो
नष्ट बुद्धि से केवल काम-इच्छा के प्रार्थी थे।

तब ब्रह्मा जी ने ये बात रखी,
उत्तम वर खोजने की चाल चली,
बोले, "जो समस्त ब्रह्मांड का चक्कर सर्वप्रथम लगा आएगा,
वही श्रेष्ठ हो अहिल्या से विवाह कर पायेगा"।

ऋषि गौतम इस कार्य में विजयी हुए,
एक गाय, नवजात बछड़े और शिवलिंग की
परिक्रमा कर अग्रणी हुए।
वह गाय, बछड़ा समेत पूरी पृथ्वी को दर्शाती थी,
जो हर जीव को जन्म देकर,
पालन-पोषण करती जाती थी।
शिवलिंग समेत वे संसार के जीवन चक्र को दर्शाते हैं,
जीव जन्म, कर्म और मृत्यु से परम धाम को जाते हैं।

इस तरह अहिल्या का विवाह संपन्न हुआ,
इस तरह देव और असुरों का घमंड भंग हुआ।

अहिल्या भी अत्यंत ज्ञानी थी,
ब्रह्मपुत्री तो थी,
मगर अपने सौंदर्य की अभिमानी थी।
मनुष्य जब किसी ऊंचे पद को पाता है,
अभिमान की गहरी खाई में,
उतना ही गिरता जाता है।

इधर इंद्र के मन में सनक थी,
ऋषि गौतम के दिनचर्या की भनक थी।
आश्रम जब उनकी उपस्थिति-विहीन हो जाता है,
इंद्र ऋषि का वेश धरकर आता है,
उदविघ्न हो अहिल्या को पुकारता है,
वासना के वशीभूत धर्म-अधर्म भूल जाता है।
मन मे तीव्र कामना से वेश का खयाल भी उतर जाता है,
और फिर अधीर हो वह मिलन की इच्छा को दर्शाता है।

अहिल्या जब समक्ष आती है,
इंद्र को ऋषि गौतम के रूप में पाती है,
उसके असली स्वरूप को पहचान जाती है,
पर मन ही मन मुस्कुराती है।
वो अपने सौंदर्य के मद में चूर हुई,
धर्म-पथ से उस क्षण वह दूर हुई।
सोचती, "परिस्थिति मेरी सुंदरता की साक्षी है,
आज स्वयं सुरपति मेरा अभिलाषी है,
कहाँ एक साधारण मुनि दरिद्र अभागा है,
और कहां एक इंद्रलोक का राजा है"।

मगर नियति की यह बात हुई,
ऋषि गौतम की ढोंगी से मुलाकात हुई।
काम-इच्छा पूर्ण कर इंद्र बाहर जब आता है,
ऋषि को अपने समक्ष वह पाता है।
ऋषि को हाय! परिस्थिति का ज्ञान हो जाता है,
मन क्रोध, घृणा और पीड़ा से भर जाता है।

(अब वे दोनों को श्राप देते हैं और अहिल्या को बताते हैं के त्रेता में श्रीराम ही उद्धार करेंगे।)

जिह्वा से जब पीड़ादायी वाक्य निकल जाते हैं,
व्यक्ति के सत्कर्मो को नष्ट करते जाते हैं,
ऋषि गौतम अतः आश्रम को छोड़ चले,
प्रायश्चित को हिमालय की ओर चले।

त्रेता में श्रीराम तब आये थे,
अहिल्या का उद्धार कर नैतिकता का पाठ पढ़ाये थे।

इस कथा में हर एक कार्य के कारण हैं,
ये तो बस धर्म-अधर्म का एक उदाहरण है।
जिनके चरणों की छाप से कई किरदारों के पाप धुले,
उनकी अनुकंपा से, हमको भी बैकुंठ धाम मिले।


Tuesday, 15 September 2020

मृत्यु से मुलाकात


निकल पड़ा मैं घर से किसी बात पे,
क्रोधित था मन उस दिन दुनिया के हालात पे,
उचटा हुआ मन लिए पहुंचा एक सूने मैदान में,
सहसा सन्नाटे से ठिठका, हुआ थोड़ा हैरान मैं ।





दूर दूर तक न कोई मनुष्य नज़र आता था,
न ही आकाश से कोई पंछी चहचहाता था,
रोशनी भी धीरे धीरे ढल रही थी,
धूल समेटे हुए हवा भी मंद-मंद चल रही थी।





हवा का बहाव भी ठहरता हुआ सा जाता था,
"कौन हूं मैं?", क्रोधित मन यह भूलता सा जाता था।
इससे पहले अस्तित्व की यादें मिटने को उठे
एक हल्का सा साया नज़दीक महसूस हुआ जाता था।





समझा कोई है धूर्त वहां, जो विघ्न डालने आता था,
बिन समझ-बूझ मैं उससे संवाद छेड़ता जाता था -





"है कौन मूर्ख वहां बतलाओ,
अपना चेहरा मुझे दिखलाओ।
जानते नहीं तुम कौन हूँ मैं?
पहचानते नहीं कौन हूँ मैं?
किस आशय से नज़दीक आते हो?
साये की तरह पीछे लहराते हो।





मैं यहां का हूँ मसीहा,
मैं वो ज्ञानी शख्स हूँ,
अभिनंदनीय हूँ मैं यहां सभी का,
लोग कहते मैं ब्रह्म का अक्स हूँ।





तू होता कौन यहां जो सहसा मुझे चौंकाता है?
मेरे चिंतन में बाधा बन खुद को मुझसे छुपाता है!
मेरे पास इतना धन-धान्य भरा,
तेरा भी मोल करा सकता हूँ,
मेरा यहां अधिकार बड़ा,
तुझे बिकवा भी सकता हूँ।
यहां अधिपत्य है मेरा
जहां मन हो वहां मेरा डेरा है,
यदि झुक जाए तू मेरे सम्मुख,
हर ऐश्वर्य तुझे दिला सकता हूँ।





मुख खोल कर जवाब दे,
पक्षधर होने का प्रमाण दे!"





जैसे एक बिजली कौंध गयी,
हो प्रकृति जैसे मौन गयी
कानों से एक विचित्र स्वर टकराया था
हर अणु में रोमांच भर आया था।
अट्ठहास कर वह बोला, "समझता तू खुद को अति ज्ञानी है
शरीर को समझता पहचान अपनी, मनुष्य, तू बाद अज्ञानी है!
चल तुझको सत्य बताता हूँ,
तुझसे अपना परिचय करवाता हूँ।
मैं हूँ लोभरहित, मुझको कुबेर तक नहीं मोह सकता है,
है तेरी क्या बिसात बालक, तू तो अभी बहुत ही कच्चा है।





सोचता है तू, मुझको संपत्ति धन-धान्य दिखायेगा,
किस काम आएंगे ये जब तू मेरे साथ चला जायेगा?
मैं हूँ वह जिससे थर्राता यह लोक तेरा,
मैं हूँ वह, जो तेरा शरीर यहाँ मिटने छोड़ जाता हूँ,
तेरे हृदय में हाथ डाल प्राण निकाल ले जाता हूँ।





मैं यम का हूँ दास बड़ा,
मैं कभी नहीं बिक सकता हूँ,
मैं अंतर करता नहीं, उचित समय पर -
हर जीव के प्राण हर सकता हूँ।
मैं हूँ अखंड, पुरातन, काल के साथ ही मैं सदैव चलता हूँ,
जन्म जो लेता है सृष्टि में,
मुक्त करने उसको निकलता हूँ।





पूरे ब्रह्मांड में है वास मेरा,
मैं हर घड़ी चलता रहता हूँ,
अस्थिर रहके एक समय,
एकाधिक स्थानों पे मैं बसता हूँ।
छूट नहीं सकता है कोई मुझसे,
मैं वह जीवन की सच्चाई हूँ,
जीवन-मरण के चक्र का अभिन्न अंग,
माया की देता मैं दुहाई हूँ।





महादेव के तांडव का अंत हूँ मैं,
ब्रह्मा के चेतन की अगुवाई हूँ,
श्रीराम के चरणों का दास हूँ मैं,
श्रीकृष्ण के विश्वरूप की गवाही हूँ।
दास हूँ मगर फिर भी श्रीराम को लेने मैं आया था,
और सीता जी को भी मैंने वापस बैकुंठ पहुंचाया था।
तीर की शैया पर लेटे हुए भीष्म की मुझसे विनती थी,
मैं आया तब भी था, बस उचित समय उनकी अपनी गिनती थी।





द्वापर युग के अंत के लिए भी मैं ही क्षमा-प्रार्थी था,
गांधारी के श्राप से झुका था मैं,
जाने को इस लोक से स्वयं श्रीकृष्ण ने, बनाया अपना सारथी था।
रावण का अभिमान भी मैं था,
लंका में अग्निकांड भी मैं था,
श्री हनुमान के वारों से,
असुरों का उत्थान भी मैं था।
दुर्योधन की ज़िद और झूठी शान भी मैं था,
कर्ण का वह महादान भी मैं था,
अभिमन्यु हत्या के पाप का फल,
द्रौपदी के पांचों पुत्रों की जान भी मैं था।
धृतराष्ट का अंधा राज मोह,
कुरुक्षेत्र में शंखनाद भी मैं था,
और, अर्जुन के गांडीव से निकले बाण भी मैं था।





अतः हे मानव! मुझे तू नहीं खरीद सकता है,
मेरा मोल न तो इतना भी सस्ता है।
इसलिए, सही कर्मों की आदत को बनाना होगा,
दूसरों के लिए जीना तुझे अपना लक्ष्य बनाना होगा,
क्योंकि मेरा परिचय स्मरण रहे-
जिसने जन्म लिया है, उसे एक दिन तो जाना होगा।


Monday, 24 August 2020

विपक्ष की बात


भारतवर्ष की भूमि पर
जब शीत ऋतु लहराती थी,
असावधान बैठी देहों पर,
क्रूरता बरसाती जाती थी।

हंसते-रोते, चलते-सोते रोजमर्रा के जीवन ढोते,
लोगों के जीवन मे एक दिन आया ऐसा निराला था
लोकतंत्र का गान करके कुछ जनों ने,
देश के हृदय पर तेज़ चुभोया एक भाला था।
सुबह का अखबार जैसे अपने साथ उल्टी स्वतंत्रता लाया था,
लगता था ठंड ने कुछ लोगों का दिमाग भी हिलाया था।

विस्मय से देखते थे भारत के मनुज स्वाभिमानी,
बाहर निकले लोगों को करते विकृत नादानी,
विभाजन करवाने वालों की बातों में वे फंसते थे,
सत्ता के लिए राजनीति खेलने वाले देख हंसते थे।

(सत्ता के लिए राजनीति खेलने वाले?)

अब इनके बारे में क्या बताऊं,
ये हैं ऐसे महान भारतवासी जो -
राष्ट्रहित्कारी नीतियों का विरोध करने से पीछे नहीं ये हटते हैं,
असत्य का प्रचार करके, मगरमच्छ के आंसू बिलखते हैं
किस हद तक गिर सकते हैं ये - इतिहास इसकी गवाही है
डाह-द्वेष की मुस्कान चेहरे पर - इनके प्रयोजन साफ झलकते हैं।


ये वही हैं, अनगिनत दफा जिन्होंने  अधिकार जनता का मारा था,
कान बंद कर लेते थे ये जब-जब सरहद के जवानों ने इन्हें पुकारा था,

बदले में आर्मी चीफ को गली का गुंडा कह दुत्कारा था।

मेरे वामपंथी मित्रों ध्यान से सुनो, आज मैं तुम्हें बताता हूँ,
एक-एक करके इन "बुद्धिजीवियों" की आज मैं लंका लगाता हूँ।

निशाचरी शक्ति तीव्र है इनमे इसके प्रमाण चाहते हो?
भोपाल गैस त्रासदी में रातोंरात एंडरसन को फरार करवाना भूल जाते हो।
2G, 3G, commonwealth, आदि तो हैं अभी की बातें,
आओ इतिहास से निकलते हैं हम इनकी कुछ पुरानी यादें।
कुछ बुद्धिजीवी कहते हैं इन्होंने आज़ादी दिलवाई थी,
और स्वतंत्रता की सारी योजनाएं सिर्फ इनके अंतर से आई थी।
इनकी दलीलें तो शायद कुछ नासमझों के लिए भारी है,
ये सब मानने वालों की तो गयी मति मूढ़ की मारी है।

स्वतंत्रता का अर्थ इनको समझाना आसान नहीं,
सीधे समझ नहीं ये पाते हैं,
जिस थाली में खाते हैं,
छेद उसी में करते जाते हैं।

याद है? जब राष्ट्रीय संघ ने निषेधाधिकार (मतलब वीटो पावर) का प्रस्ताव हमें बढ़ाया था,
विचारहीन होकर चीन से मैत्री के नाम उसे गंवाया था
कितना समय लगा था फिर चीन को पलटने में?
कितना समय लगा फिर भारत के गले मे फांस अटकने में?

असहयोग आंदोलन भी अधूरा रखा था चौरी-चौरा के एवज से,
नेताजी को भी मजबूर किया था अकारण , बेवजह से,
जब यहां राजनीति खेलते किसने वचन निभाया था?
वो उधम सिंह था जिसने ड्वायर को इंग्लैंड जाकर उड़ाया था।

चलो थोड़ा और आगे आते हैं, इनकी हरकतें नज़र में लाते हैं,
जब सरदार पटेल ने पांच सौ बासठ राज्यों को भारत में मिलाया था,
तब अंदरूनी होने के बावजूद भी, किसने,
कश्मीर राष्ट्रीय संघ ले जा कर भड़काया था?

किसने सत्ता के लिए देश मे आपातकाल लगवाया था?
किसने दिल्ली में सिखों का नरसंघार करवाया था?
किसने धर्म और जाति को राजनीति में मुद्दा बनाया था?
किसने कश्मीरी पंडितों की चीख-पुकार अनसुना कर दबाया था?

ये तो कुछ नहीं, इनकी कई शर्मसार हैं बातें,
क्यों सुनते हो इनकी, झूठ बोल ये जनता को बरगलाते?
अफवाह फैलाना धर्म है इनका, दंगा करवाना जाति है,
असत्य-चालबाज़ी की आग लगाते जो स्वयं फैलती जाती है।

(ये लोग जिनको पता कुछ नहीं और दूसरों की बातों में आकर विरोध कर रहे, लाखों का फोन चलाते और मुफ्त का सरकारी कागज़ नहीं पढ़ सकते?) तो-

सत्य की परख करना चाहते हो अगर,
झूठ से पर्दा उठाना चाहते हो अगर,
तो स्वयं जांच करो तथ्यों के आधार पर
अन्यथा विरोध कारगर नहीं होता,
होता है दिखावटी, बेवजह और निराधार पर।

विरोध नहीं कहलाता है राष्ट्र को तोड़ना-जलाना-नुकसान करना
यह कहलाता हैं - स्वतंत्रता और संविधान की हत्या करना।













If you're an Indian, then after reading this does these words go through your head?





Corrupt Congress. Corrupt opposition parties. Liberals. Anti-nationals.


Tuesday, 18 August 2020

Chances

Take your chances, O' lonely soul,
Lest the passions are abating,
Seek the comforts of present not the past, for
The time rushes while these keep on debating.

Worried of the chances that you will lose?
But equal are that of winning, if not more,
What use is such caution in what to choose?
When you remain stuck, stagnant & quite unsure!

Life is short and keeps on fleeting,
While we keep worrying if it will work or won't,
What is the point of doubting & bleating?
When it's our effort that it'll do or don't!

Monday, 17 August 2020

You should have a Wife?


When I was happy without any strife,
when I had no qualms with life.
Then it was deemed by people to advise,
"Boy, you should have a wife!"





I search for joy and for truth,
and go for adventures in my youth.
And yet it was deemed by them to be so rife,
so people told me to have a wife.





But I am gratified in this solo ride,
those society's rules I do not wish to abide.
Yet they say in whispers sly,
"Man! You must have a wife."





I weep when I'm sad in heart's lament,
I also laugh out loud to my heart's content.
Why should I abandon these strange delights?
I do not understand why I should have a wife!





I can wake up at midnight and go for a ride,
I can spend my day washing my bike.
Why should I give up, for misery, this freedom of choice?
Why? Tell me why I should have a wife?


Friday, 14 August 2020

आज़ाद


कहते हैं कि भारतवर्ष में आज़ादी की आजकल नई घटा है छायी,
जब अपने ही वीर सपूतों की निंदा करने की कुछ लोगों ने है स्वतंत्रता पायी।
अपने ही हाथों जिनसे मातृभूमि का गला घोंटा जाता है,
उन लोगों को आजकल देश में आज़ाद कहा जाता है।









रहते हैं जो उच्च दबाव में, तूफानों में, वीरानों में, शून्य ताप से भी कम वाले उजियाले-अंधियारों में,
रहते हैं जो कई मास दूर माता के प्रेम पिता के आलिंगन से, किलकारियां लेते अपने बच्चों के भी बचपन से,
रहते हैं वे ताकि इस देश का शीश न झुकने पाए,
ताकि कोई भटका हुआ मानव किसी रोज़ अपने साथ शांति को ही न उड़ा जाये।









अरे तुम क्या जानो आज़ादी क्या होती है!









आज़ादी का अर्थ भी जानो,
यह लो मैं बताता हूं,
भूलो इसको मत तुम अब,
तुमको प्रतिबिम्ब दिखलाता हूँ।









जानो यह संग्राम ज़रा,
समझो, अपने शब्दों को पहचानो।
आज़ादी नहीं विदेशों की,
यह भारत के अंतरतम से आई थी,
जाओ पढ़ो इतिहास ज़रा,
पढ़ो, समझ कर यह जानो,
मिली यह जब वीर मतवालों ने,
गुलामी के खिलाफ भारी धूम मचाई थी।









तब नहीं कहते थे वे उन हालात पर,
"भारत तेरे टुकड़े होंगे" चीखकर हर बात पर।
जान हथेली पर लिए खेलते थे मौत से,
चढ़ जाते थे सूली देशभक्त हंसते हुए एक जोश से।
क्या उन क्रांतिकारियों के बलिदानों को तुम भूल गए?
क्या भगत , चंद्रशेखर, बोस और सुखदेव पीछे कहीं छूट गए?









आज़ादी एकतरफा नहीं, नहीं सिर्फ यह रईसों की,
आज़ादी गरीबों की, आज़ादी वीर सपूतों की,
आज़ादी विचार बड़ा, आज़ादी आने वाली पुश्तों की,
आज़ादी माताओं की, आज़ादी हमारी बहनों की,
आज़ादी भेदभाव रहित, आज़ादी स्वाभिमानी पुरुषों की,
आज़ादी जन-जन की , पराये और अपनों की।









मगर आज़ादी यह नहीं कि लोभ में देश को अपशब्द कहते जाओ,
आज़ादी यह नहीं कि समाज में राष्ट्र-विरुद्ध दुर्व्यवहार फैलाओ।
या फिर सुरक्षा को दुश्मनों के हाथ बेचते जाओ।









इसलिए तिहार जेल के कैदी आज़ाद नहीं कहलाते हैं,
क्योंकि आज़ादी के साथ मूल कर्तव्य भी आते हैं।





और आतंकियों का समर्थन करने वालों, तुम भी आज़ाद नहीं कहलाओगे।


Monday, 10 August 2020

पाप की परिभाषा


आज के कलियुग में जहाँ
पाप-व्यभिचार सदा-सद पलता है
इस शहर-उस शहर, हर नगर, हर देश से
हंसते-मुस्कराते, हाथ हिलाते, सिर उठा निकलता है।

राह चलते हुए राहगीरों को वह पकड़ता है
हर किसी के मन को वह अंततः जकड़ता है
और गलत राह पर ले जा कर वह अकड़ता है

(जो मन मे एक बार पाप को बसा लेता है तो उसे निकलना मुश्किल हो जाता है। पाप यहां मन में बैठ कर यह बता रहा है कि वह क्या है)

कहता है, "मैं हूं यहां, इस देश और विदेश में,
मैं ही वासना, मैं ही चिंता , मैं ही कुंठा, मैं ही मन के द्वेष में,
घूमता हूँ मैं यहां सब मानवों के वेश में!

और पार नहीं पा सकते हो तुम मुझसे या मेरे किसी भी नाम से,
नहीं निकल सकते फिर मेरे किसी काम के अंजाम से
घर कर लेता हूँ फिर मैं उस पवित्र आत्मा के रूप पे,
नहीं जा सकते हो तुम फिर ऊपर कहीं इस धाम से!

छोड़ूँगा तो नहीं मैं तुमको अपने किसी खयाल से,
और मुक्त नहीं होने दूंगा मैं तुमको माया के इस जाल से!
मैं खड़ा हूँ राह पर तुम्हारे बनकर एक आसान रास्ता,
हाथ थामोगे तो उठा दूंगा तुम्हारी सच्चाई पर से आस्था!

और तुम नहीं राम कि मुझको तुम मार सकोगे,
न ही तुम हो कृष्ण, न्याय की राह तुम पहचान सकोगे!
न तुम अर्जुन, न तुम भीष्म, न तुम धर्मराज हो,
न तुम लक्ष्मण, न तुम भरत, न रघुवंश तुम आज हो!

कहाँ पर भागोगे जब तुम्हारे मन को मैं हथियूंगा?
कितना पुण्य कर पाओगे जब हर ओर से घिर आऊंगा?
मैं ही था वो जिसने सदियों पहले मंदिरों को जलवाया था,
मैं ही था जिसने नालंदा और तक्षिला को मिटाया था,
मैं ही था वो जिसने मुगलों से खूनी खेल खिलवाया था,
वह भी मैं ही था जिसने चित्तोड़ दुर्ग में माताओं को आग में धकेला था,
और जालियांवाला के खूनी खेल का भी मैं कारण अकेला था!


फिर भी अचंभित होकर डरता हूँ खत्म हो जाऊंगा,
एक उम्मीद की छोटी किरण से भी जलकर भस्म हो जाऊंगा!"










https://www.youtube.com/watch?v=K9ISBTgCjWo&t=82s

Sunday, 9 August 2020

The Cloud's Flight


‘Pittar-pattar’ the rain drops fall,
From the clouds, its journey small,
towards the earth, smelling fresh.
It falls on the moor beyond that lifeless stream
where darker shadows loom in moonlight beams.





The drops form the pond,
Smaller, bigger; growing in bond
Falling in pit with each other,
Unity’s armour they donned.
Dark clouds gather above, they grow in size,
After joining one another, in lows and highs.





The earth was still before,
A crater in place,
Laying in the summer heat,
Barren, a hopeless space.
The clouds roamed above,
Proud and dark,
When nature taught it, a lesson stark.
Hidden inside is perspiration so wet,
It can wash away the troubles
of that forlorn pit and bless.
The cloud gurgles, it booms above,
The rain falls down, towards the ground,
So fast they fall, as if in love.
They bind together and form that stream,
That quenches the thirst, Of everyone in need.
And that pond too, which is formed,
Gave life to the earth, after that storm.





The clouds may grumble,
But none pay heed,
For it is also smiling and bright,
Not desolate or dark indeed.





It soars now quickly, boundless in the sky,
Watching the earth below Flourish,
a small heaven on the nigh’.
Heading towards another it gathers inside the life,
Some other place so desolate, so full of strife.
To end that pain it travels to another land,
Regardless of the boundaries created by man.


Wednesday, 1 July 2020

My Poem 'What is Life?' published on Storymirror, ranked #3 in its category and #14 in their entire English poetry database.


Poem published on Storymirror and ranked #3 in its category and #14 in entire English poetry from among thousands and thousands of poems. Check it out from below.





https://storymirror.com/read/english/poem/what-is-life/4xcobee3


Tuesday, 23 June 2020

What is Life?, by Shubhanshu Shrivastava — POETRY FESTIVAL. My poetry published in Poetryfest. Poetry websites


(myliteraryexpedition.wordpress.com) Life is a dream when you think about it, A gleam of colors, a vision of grey, With a few moments that smell sweet and nice, With the occasional taste of bad decay. Life is a journey as many say, A tunnel filled with twists and turns, And the empty caverns that come through […]

#PublishaBook

What is Life?, by Shubhanshu Shrivastava — POETRY FESTIVAL. Submit to site for FREE. Submit for actor performance. Submit poem to be made into film.

Wednesday, 18 March 2020

यह प्रेम नहीं


(इस कविता में जो लिखा है उसका अर्थ तो समझिए ही साथ ही साथ उसके उलट जो आज के युग में होता है वह भी सोचिये)
(कविता को लयबद्ध पद्य की शैली में लिखा है, यदि उस लहजे से पढ़ा जाए तो अलग आनंद मिलेगा 🙂)

काल का चक्र जो चलता है,
किसी के लिए नहीं ये रुकता है,
किसी को ऊंचाई पर पहुंचाता है,
किसी को पैरों तले कुचलता है।


दुनिया में गलत बहुत सी रीति हैं,
क्यों समझते नहीं जीने का नाम युद्ध है, न कि प्रीति है,
संघर्ष की अग्नि में ध्यानमग्न जो होता है
सही समझता है - जीने का अर्थ संघर्ष है, अंधा प्रेम एक कुरीति है।
अब ठहरो! क्या इसका अर्थ जानना चाहोगे?
क्या इस कथन की गहराई को नापना तुम चाहोगे?
यदि हां तो सुनो, सोचो और आत्मदर्शन भी करते जाओ।
जो अब तक समझते थे उसको किनारे करते जाओ।


प्रेम एक शाश्वत विषय है,
तपते जीवन में आश्रय है,
मगर प्रेम का नाम जब लेते हो,
जीवन में क्या क्या कहते और करते हो।
इसकी व्याख्या तो अब धुल सी गयी है,
इस युग के अंधड़ से ज्योत तो इसकी बुझ सी गयी है।


वासना में बंधकर जीना प्रेम नहीं,
किसी को मुश्किलों की मझधार में छोड़ना प्रेम नहीं,
क्या सड़कों पर शाम को भूखे बच्चों को तुमने देखा है?
हाथों में हाथ डाल हंसते नज़रअंदाज़ करते उन सड़कों पर टहलना प्रेम नहीं।
नहीं है प्रेम अपनी शामों को व्यर्थ करना मदिरा अंकित जज्बातों पर,
अरे प्रेम तो है दुश्मन को ले कर मर मिटना भारत की इस माटी पर।
और जिसने सिखाये तुमको इस जमाने के अर्थ हैं उसको ठुकरा दो,
उनके पढ़ाये हुए उन खोखले आदर्शों को तुम दफना दो।
प्रेम नहीं बल्कि अपनापन साधारण मनुष्यों की अभिलाषा है,
प्रेम तो केवल कुछ वफादार जीवों की ही भाषा है।
इस आधुनिक युग का "प्रेम" बस एक ढोंग एक तमाशा है,
प्रेम का सत्य तो बस माता-पिता के कर्मों की परिभाषा है।
प्रेम नहीं समृद्धि में अग्रसर हो मूल्यों को भुलाते जाओ,
और प्रेम नहीं माता-पिता के परिश्रम से कमाए धन को लुटाते जाओ।


प्रेम है जो इस धरती के लिए ही बस जीते हैं,
प्रेम है वो जिनके दिन बस दूसरों के लिए ही बीते हैं,
प्रेम है जो समाज के उद्धार के लिए विष का प्याला पीते हैं।
प्रेम तो आपके सरलतम कार्यों में भी दिखता है,
प्रेम नहीं फेसबुक-इंस्टाग्राम की दुकानों पे बिकता है,
संघर्ष कर स्वयं को मजबूत करना प्रेम है एक,
अपने जीवनसाथी के त्यागों को मानना भर भी प्रेम है एक,
परिजनों की डांट को चुपचाप सुनना भी प्रेम है एक,
हर सुबह अपने-अपने कार्यालयों की तरफ निकलते हो
वृद्धों के लिए अपनी गाड़ी को रोकना भी प्रेम है एक,
सड़कों पर निकलते हुए वो वीर जवानों से भरी गाड़ियां देखी हैं?
नज़र उठाकर कुछ पलों के लिए सलाम करना भी प्रेम है एक।


रोज़ाना के जीवन से हताश जब हो जाते हो,
रात को कराह लेकर जब तुम सो जाते हो,
ऐसी दिनचर्या जीने में भी बलिदान है एक,
आपके कर के पैसों से देश चलता है, यह भी प्रेम है एक।


Tuesday, 25 February 2020

सब चुप क्यों हैं?

(कल्पना करिए आप 12-15 वर्ष पहले के भारत में हैं। जैसे जैसे मैं समय में आगे बढूंगा आप समझते जाएंगे)

रोज़ाना चलते जीवन के यापन में,

सब चुप क्यों हैं?

अंतर्द्वंद के स्थापन से भी,

सब चुप क्यों हैं?

 

सर उठा कर देखते हैं जब लोग,

पता लगता है कि रास्ते तो अब खाली है।

खुली आंख से देखते दुनिया को,

संसार की हालत भी निराली है।

आकाश में लोभ के पंछी दिखाई पड़ते हैं,

अपनों के परिवेश में पराये दिखाई पड़ते हैं,

चहुँ ओर स्वार्थ की धुंध का विस्तार है,

मंदिरों की जगह मैखाने दिखाई पड़ते हैं।

सत्य के वाक्यों में बहाने दिखाई पड़ते हैं,

झूठ की हवा भी क्या चली है,

मित्रों में अब अनजाने दिखाई पड़ते हैं।

कौन कहे सत्य और निष्ठा के लक्षण सुप्त क्यों हैं।

जानते हुए भी न जाने सब चुप क्यों हैं?

 

भारतवर्ष के भीतर भी दुश्मन हैं,

द्वेष और क्रोध से भरे ये जाते हैं,

क्षति पहुंचती है जब देश को,

मुख खोल ये गधे-सा मुस्कुराते हैं।

राष्ट्रहित की बात जब होती है,

झूठ फैला ये दंगे भड़काते हैं,

आतंकियों के मरने पर ये,

काली पट्टी बांध संसद में आते हैं,

जी भर के ये आंसू बहाते हैं,

और वर्षों तक बिरयानी उन्हें खिलाते हैं,

AFSPA और TADA जैसे कानून भी हटाते हैं।

तब, आतंकी इतने मुक्त क्यों थे?

ये देख उस समय सब चुप क्यों थे?

 

जब बढ़ा था अंधकार बहुत,

सरकार में आया था अहंकार बहुत,

जनता ने बाहुबल दिखाया था,

लोकतंत्र को सार्थक करवाया था।

उद्दंडता की जब पराकाष्ठा थी,

वंशवाद से मुक्ति की आकांक्षा थी,

विधान-पटल पर सर्द शीत छाई थी,

सरकार जब वामपंथ की अनुयायी थी,

भूमि आतंकित हो दहलाई थी,

पूरे देश की बात तो छोड़िए,

सिर्फ मुम्बई ही कई हमलों से थर्राई थी।

सेना को ज्यादातर निष्क्रियता के आदेश क्यों थे?

नेतृत्व करने वाले तब चुप क्यों थे?

 

संसार का यही नियम है मित्र,

बदलाव ही केवल स्थिरता है मित्र,

वर्षों की विचारधारा से जब अति हो जाती है,

उन्नति की राह में वह अनुपयुक्त हो जाती है।

बदलाव से वही लोग तो डरते हैं,

लूटपाट के स्थापित साधन जिनके हाथ से फिसलते हैं।

विकास के लिए बस इतनी बात ही काफी है,

सिर्फ सौ अपराध की माफी है,

नेतृत्व कोई भी हो -

जब सत्ता शिशुपाल बन जाएगी,

जनता से माफी नहीं वह पाएगी,

द्वेष में दुर्व्यवहार बढ़ेगा जिसका,

सुदर्शन से सर कटेगा उसका।

 

देखें, देखें असत्य के लिए वे कितनी आवाज़ उठाएंगे,

देखें उनके चेले कितनी गोली चलाएंगे,

देखें वे कब तक रक्षकों का लहू बहा पाएंगे,

देखें वे कितने जनों को गुमराह कर पाएंगे,

देखें अपने ढकोसलों से कब तक - "आज़ादी" के नारे लगाएंगे,

देखें वे कब तक पत्थर उठाएंगे,

देखें वे कब तक बसों को जलाएंगे,

देखें वे कितनी पुलिस चौकियों में आग लगाएंगे,

देखें भले लोग भी, आखिर कब तक शांति का पाठ पढ़ाएंगे,

देखें हम सब भी आखिर, कब तक चुप रह पाएंगे।

Friday, 14 February 2020

पार तो फिर भी करना होगा

Inspired from and Dedicated to Shri Atal Bihari Vajpayee

हो राह में यदि आकाश,
सूर्य की तरफ उड़ना होगा,
बीच तड़ित से चमकते बादलों को
पार तो फिर भी करना होगा।

जब नदी में हो वेग गजब,
और नौका फंसी मझधारों में,
धैर्य तो फिर भी धरना होगा,
पार तो फिर भी करना होगा।

विपरीत दिशा की धारा में,
चप्पू चलाते रहना होगा,
प्रखर प्रवाह से टकराएगा पानी तब भी,
पार तो फिर भी करना होगा।

अवरोध बनी हो चट्टानें पथ पर,
उठ, पंख फैला कर उड़ना होगा,
चढ़ कर नहीं तो कूद कर ही सही,
पार तो फिर भी करना होगा।

जीवन नहीं होता किसी के लिए आसान,
जीने का अर्थ समझना होगा,
हाथ बढ़ाकर ही, छीन के अवसर लेना होगा,
पार तो फिर भी करना होगा।

परेशानी-तकलीफें तो आएंगी,
इनसे सीख जीने का आनंद लेना होगा,
हीरा बनने के लिए संघर्ष-अनल में जलना होगा,
पार तो फिर भी करना होगा।

जब भूमि जलते अंगारे हो,
दृष्टि में कहीं न ठंडे किनारे हों,
तब हृदय को पत्थर बना इस अग्निपथ से गुजरना होगा,
यह अग्निपरीक्षा तो देना होगा।

पार तो फिर भी करना होगा
पार तो फिर भी करना होगा।

Wednesday, 11 December 2019

The Millennial's Internet Crisis


It has been not so long ago that if you looked on the streets at evening time, you saw kids playing gully cricket or chatting up with what happened in the recent episode of shaktimaan or in their favourite cartoon. That was the time when kids learnt from the books or their elders or their peers in the society. They learnt through fat jokes, jibes, nicknames, etc. acts which weren’t glorified by or frowned upon but were simply done. There were no boundations of appearing to be very sophisticated among your friends and no need to show off what food you’re having, where you’re having and with whom you’re having.





But that all changed since the mid 2000’s, since the advent of the internet in the lives of the normal people. They were now exposed to the content that previously had been enabled only when you looked for them and not without atleast one person knowing about it. The lives changed. The most affected were the millennials who were at an age that marks a high curiosity rate on the learning curve. The millennials got introduced to the internet that connected them to the world, things like the social media such as Orkut, Facebook, etc. As they learned and grew, something terrible started happening.
They were being hooked to the internet, the attraction of having to express yourself to a person who is not only willing to listen to their silly notions but also shared them was too much to handle. They fell head over heels in love with the social media. Was this a good thing? I think not but that is still up for debate. Then something spectacular happened! The internet or the social media entered a new era where the governments realised how the misuse of internet can happen and how the internet is more prone to affecting the minds of the young population which are very impressionable. So they decided to restrict or regulate the content that was coming up on the internet. They started laying down cyber security laws as the use of computers and internet based OS and softwares found application in the government sector. As this progressed, internet usage boomed from dial up networks to cyber cafe’s to using internet services offered by Telecom companies to broadband connection, the behaviour of the millennials changed at an exponential rate.





But the impact this change had was not as pretty as it was appearing to be. While the cyber cafes were booming across the country, the youngsters were becoming more prone to problems and behavioural patters that were unheard of at that time in an average middle class household. This was a blow to the “Free internet/Liberal” brigade. The 'Generation X' parents were completely unequipped and unaware to even understand the issue, let alone address it or understand the root cause of this behaviour of their dependents. At that point of time, if you were to ask a parent who were undergoing this crisis that what was the most harrowing experience they have experienced in their lives, they will would have recounted the same without a second thought. Their kids, roughly between the age of 14-23 were lying, stealing and sneaking away to get a taste of the internet and social media. It became the new drug and the kids started giving up on books, comics and sports just to see that buffering sign on the screen which led to the message that xyz has become their new friend. This in turn led the way to online dating, pornography, cyber crimes, online stalking, obsession and whatnot. The constant exposure to


Monday, 24 June 2019

Pune


Perched a little farther from,
the country's major city of dreams.
Snuggled lovingly amidst mountainous beasts,
cozily, is the - 'Oxford of the East'.





Where sun shines merrily about,
of, a traveler is bothered the least.
Where the scenes - most lovely, exists,
which for weary eyes is a delightful feast.





Where the hills full of trees,
stands majestic, still untouched by human greed.
Where the thirst of the blazing ground,
is quenched playfully by drizzly breeze.





Come where travelers from all around,
to live their enchanted dreams.
Where the act of wandering about,
is full of joy - merrier and most serene.





Where travelers tour without a haste,
a paradise for them of exquisite taste.
Where fatigue is swiftly lost,
when a cool drizzle washes the face.





Come lonely traveler & find abode,
a shade in the life's stinging blaze.
Come and live closer to the hills and sea alike,
here, in this 'city of more pleasant dreams'


Saturday, 30 March 2019

A Fool still in Love

Every time and again you love me, you say,

I light up then, like a warm summer's day.

In the minutes that come,

I am like a kid,

so full of joy and having fun.

That fun is so much more than you think,

it is blissful, joyous, serene, cheery, sprightly, exuberant.

I pop a smile and I dream,

sitting alone of what the life with you could be.

I start weaving those memories of the future,

scenarios of love playing over and over.

Then I stop!

And suddenly the past comes back,

of what you had always done to me,

practically, stabbed me in the back.

I wonder! Will this time it will be different?

The next day comes and here we are again,

in the same place we always attain.

I lay fallen wretched, in despair,

while you find something else for you to entertain.

And then again, you put me to recycle, repair,

come when bored, to use me as a spare.

No more, I say!

And once again I leave,

with fresh wounds on my heart,

learning to forget, yearning to heal.

And you come again,

again the same cycle begins,

playing on my feelings,

so lovelorn in your dealings,

that me, a fool still in love, fall again.

How to Win Friends and Influence People by Dale Carnegie - A Book Review

"There's far more information in a Smile than a frown. That's why encouragement is a much more effective teaching device than p...