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Tuesday, 16 March 2021

अभिमन्यु


वीरता के जो होते मिसाल हैं,
स्वार्थ, लोभ दुर्गुणों से अधिक विशाल हैं,
दुर्घटनाओं में न वे मुरझाते हैं,
कठिनाइयों को हंस कर गले लगाते हैं।





वीरता भी कई प्रकार की होती है,
जैसे सागर में असंख्य मोती हैं,
वे संसार भर में पूजे जाते हैं,
समाज के आदर्श कहलाए जाते हैं।





एक उदाहरण लोकप्रिय वह सही,
द्वापर की वह कथा कही-सुनी।
साहस की जो पराकाष्ठा है,
जो स्वयं आदि वीरों की महत्वाकांक्षा है।





जो खुद को बलिदान कर सकते हैं,
सब उन पर अभिमान कर सकते हैं,
जान हथेली पर रखकर
न्योछावर खुद को कर्तव्य पर कर,
जीवन की चिंता उन्हें नहीं होती है,
देख शत्रुओं की आँखें विस्मित होती है।









उस काल विपत्ति अत्यंत विशाल,
न रहता युधिष्ठिर के सर पर ताज।
क्या होता अगर मुकरता वीर वह,
लगता अगर परिणाम का भय?





पांडव न कभी विजयी होते,
आजीवन फिर किसी वन में सोते।
द्रौपदी कौरवों की दासी होती,
खुले केश लिए मुक्ति की अभिलाषी होती।
भीम की शपथ न पूरी होती,
अन्याय की न्याय पर विजय होती।
फिर चाहे कवच-कुंडल इंद्र मांग लाते,
या श्रीकृष्ण विश्वरूप दिखलाते।
यह परिणाम होता मगर जब,
अधर्म को अभिमान होता सहर्ष तब।





इस विश्व का वह रूप विशाल,
केशव के स्वरूप का सुक्ष्म भाग,
जन्म लेते कई वीर यहां,
कर्मों से विश्वगुरु कहलाते हैं,
सीधे बैकुंठ धाम को पाते हैं।





आखिर कूद पड़ा वह रण में जा कर,
विजय-पराजय की चिंता न कर,
आवश्यक हो गया जान गंवाने को,
अपनी सेना विनाश से बचाने को,
पांडवों को जीत दिलाने को,
अधर्म पर धर्म की विजय पाने को।





इतना अभिमन्यु को बोध था,
बाकी योद्धाओं के मुकाबले
भले ही बालक वह अबोध था -
की जब अपनों के साथ बेइमानी होती है
हार पर विजय पानी होती है
परिजनों को जीत दिलानी होती है
अधर्म की जड़ें काटनी होती है
जब प्रभु की बात सार्थक होनी होती है -
तब अपने प्राणों को शस्त्रों में भरकर,
कर्म की वेदी पर सर रखकर
समर-कुंड में शौर्य-भाव की ज्वाला जल रही होती है,
धर्म रक्षा के लिए खुद की आहुति देनी होती है।





कूद पड़ा वह वीर योद्धा बड़े विकट उस जाल में,
वह 'चक्रव्यूह' कौरवों ने बिछाया विध्वंस के खयाल से।
चक्रव्यूह की रचना को तोड़ उसे अंदर जाना आता था,
मगर नहीं बतलाया मुक्त हो बाहर न आ पाता था।
कर्तव्य की वेदी पर शीश कटाना स्वीकार था,
धर्म की रक्षा हेतु लड़ना उसका अधिकार था।





क्या होता अगर मना कर जाता वीर वह,
हाथ जोड़ कह जाता "हिंसा नहीं करूंगा यह"?
या कह देता की उसका कोई सरोकार नहीं,
"गुण-अवगुण, धर्म-अधर्म, सम्मान-अपमान, अधिकार-अत्याचार आदि -
सब तुम्हारे, पर मेरे लिए ये सब साकार नहीं"?
धर्म हेतु लड़ने को उत्पीड़न नहीं कहते हैं,
आत्मरक्षा और सम्मान के लिए शस्त्र उठाना -
विधिमान्य है, आतंक न इसको कहते हैं।
वर्षों के अत्याचारियों को भुगतना ही पड़ता है,
सर्पों के विषैले फन को कुचलना ही पड़ता है।





आहुत हुआ वह वीर समर में,
वह समय भी आया था,
हर नियम को तोड़ युद्ध के
महारथियों का मन बालक की हत्या से हर्षाया था।
पश्चात इसके, युद्ध क्षेत्र में हर नियम टूटे थे,
दोनो पक्षों के तीखे बाण,
अब रात्रि में भी छूटे थे।
अधर्म के साथ युद्ध में हर कायदा छोड़ना पड़ता है,
लोहे को आखिरकार, लोहे से ही काटना पड़ता है।





सत्य को सर्वोपरि रखने त्रेता में श्रीराम थे,
और धर्म की स्थापना करने द्वापर में घनश्याम थे।
त्रेता में प्रभु ने स्वयं समस्त राज्य छोड़ दिया,
और महाभारत के रण ने अधर्म का रथ तोड़ दिया,
अनेक योद्धाओं ने इस युद्ध में जगत को आदर्श दिया,
मगर अभिमन्यु का कुरुक्षेत्र में ही वह बलिदान था
जिसने युद्ध की दिशा को धर्म के पक्ष मोड़ दिया।


Tuesday, 15 September 2020

मृत्यु से मुलाकात


निकल पड़ा मैं घर से किसी बात पे,
क्रोधित था मन उस दिन दुनिया के हालात पे,
उचटा हुआ मन लिए पहुंचा एक सूने मैदान में,
सहसा सन्नाटे से ठिठका, हुआ थोड़ा हैरान मैं ।





दूर दूर तक न कोई मनुष्य नज़र आता था,
न ही आकाश से कोई पंछी चहचहाता था,
रोशनी भी धीरे धीरे ढल रही थी,
धूल समेटे हुए हवा भी मंद-मंद चल रही थी।





हवा का बहाव भी ठहरता हुआ सा जाता था,
"कौन हूं मैं?", क्रोधित मन यह भूलता सा जाता था।
इससे पहले अस्तित्व की यादें मिटने को उठे
एक हल्का सा साया नज़दीक महसूस हुआ जाता था।





समझा कोई है धूर्त वहां, जो विघ्न डालने आता था,
बिन समझ-बूझ मैं उससे संवाद छेड़ता जाता था -





"है कौन मूर्ख वहां बतलाओ,
अपना चेहरा मुझे दिखलाओ।
जानते नहीं तुम कौन हूँ मैं?
पहचानते नहीं कौन हूँ मैं?
किस आशय से नज़दीक आते हो?
साये की तरह पीछे लहराते हो।





मैं यहां का हूँ मसीहा,
मैं वो ज्ञानी शख्स हूँ,
अभिनंदनीय हूँ मैं यहां सभी का,
लोग कहते मैं ब्रह्म का अक्स हूँ।





तू होता कौन यहां जो सहसा मुझे चौंकाता है?
मेरे चिंतन में बाधा बन खुद को मुझसे छुपाता है!
मेरे पास इतना धन-धान्य भरा,
तेरा भी मोल करा सकता हूँ,
मेरा यहां अधिकार बड़ा,
तुझे बिकवा भी सकता हूँ।
यहां अधिपत्य है मेरा
जहां मन हो वहां मेरा डेरा है,
यदि झुक जाए तू मेरे सम्मुख,
हर ऐश्वर्य तुझे दिला सकता हूँ।





मुख खोल कर जवाब दे,
पक्षधर होने का प्रमाण दे!"





जैसे एक बिजली कौंध गयी,
हो प्रकृति जैसे मौन गयी
कानों से एक विचित्र स्वर टकराया था
हर अणु में रोमांच भर आया था।
अट्ठहास कर वह बोला, "समझता तू खुद को अति ज्ञानी है
शरीर को समझता पहचान अपनी, मनुष्य, तू बाद अज्ञानी है!
चल तुझको सत्य बताता हूँ,
तुझसे अपना परिचय करवाता हूँ।
मैं हूँ लोभरहित, मुझको कुबेर तक नहीं मोह सकता है,
है तेरी क्या बिसात बालक, तू तो अभी बहुत ही कच्चा है।





सोचता है तू, मुझको संपत्ति धन-धान्य दिखायेगा,
किस काम आएंगे ये जब तू मेरे साथ चला जायेगा?
मैं हूँ वह जिससे थर्राता यह लोक तेरा,
मैं हूँ वह, जो तेरा शरीर यहाँ मिटने छोड़ जाता हूँ,
तेरे हृदय में हाथ डाल प्राण निकाल ले जाता हूँ।





मैं यम का हूँ दास बड़ा,
मैं कभी नहीं बिक सकता हूँ,
मैं अंतर करता नहीं, उचित समय पर -
हर जीव के प्राण हर सकता हूँ।
मैं हूँ अखंड, पुरातन, काल के साथ ही मैं सदैव चलता हूँ,
जन्म जो लेता है सृष्टि में,
मुक्त करने उसको निकलता हूँ।





पूरे ब्रह्मांड में है वास मेरा,
मैं हर घड़ी चलता रहता हूँ,
अस्थिर रहके एक समय,
एकाधिक स्थानों पे मैं बसता हूँ।
छूट नहीं सकता है कोई मुझसे,
मैं वह जीवन की सच्चाई हूँ,
जीवन-मरण के चक्र का अभिन्न अंग,
माया की देता मैं दुहाई हूँ।





महादेव के तांडव का अंत हूँ मैं,
ब्रह्मा के चेतन की अगुवाई हूँ,
श्रीराम के चरणों का दास हूँ मैं,
श्रीकृष्ण के विश्वरूप की गवाही हूँ।
दास हूँ मगर फिर भी श्रीराम को लेने मैं आया था,
और सीता जी को भी मैंने वापस बैकुंठ पहुंचाया था।
तीर की शैया पर लेटे हुए भीष्म की मुझसे विनती थी,
मैं आया तब भी था, बस उचित समय उनकी अपनी गिनती थी।





द्वापर युग के अंत के लिए भी मैं ही क्षमा-प्रार्थी था,
गांधारी के श्राप से झुका था मैं,
जाने को इस लोक से स्वयं श्रीकृष्ण ने, बनाया अपना सारथी था।
रावण का अभिमान भी मैं था,
लंका में अग्निकांड भी मैं था,
श्री हनुमान के वारों से,
असुरों का उत्थान भी मैं था।
दुर्योधन की ज़िद और झूठी शान भी मैं था,
कर्ण का वह महादान भी मैं था,
अभिमन्यु हत्या के पाप का फल,
द्रौपदी के पांचों पुत्रों की जान भी मैं था।
धृतराष्ट का अंधा राज मोह,
कुरुक्षेत्र में शंखनाद भी मैं था,
और, अर्जुन के गांडीव से निकले बाण भी मैं था।





अतः हे मानव! मुझे तू नहीं खरीद सकता है,
मेरा मोल न तो इतना भी सस्ता है।
इसलिए, सही कर्मों की आदत को बनाना होगा,
दूसरों के लिए जीना तुझे अपना लक्ष्य बनाना होगा,
क्योंकि मेरा परिचय स्मरण रहे-
जिसने जन्म लिया है, उसे एक दिन तो जाना होगा।


Monday, 10 August 2020

पाप की परिभाषा


आज के कलियुग में जहाँ
पाप-व्यभिचार सदा-सद पलता है
इस शहर-उस शहर, हर नगर, हर देश से
हंसते-मुस्कराते, हाथ हिलाते, सिर उठा निकलता है।

राह चलते हुए राहगीरों को वह पकड़ता है
हर किसी के मन को वह अंततः जकड़ता है
और गलत राह पर ले जा कर वह अकड़ता है

(जो मन मे एक बार पाप को बसा लेता है तो उसे निकलना मुश्किल हो जाता है। पाप यहां मन में बैठ कर यह बता रहा है कि वह क्या है)

कहता है, "मैं हूं यहां, इस देश और विदेश में,
मैं ही वासना, मैं ही चिंता , मैं ही कुंठा, मैं ही मन के द्वेष में,
घूमता हूँ मैं यहां सब मानवों के वेश में!

और पार नहीं पा सकते हो तुम मुझसे या मेरे किसी भी नाम से,
नहीं निकल सकते फिर मेरे किसी काम के अंजाम से
घर कर लेता हूँ फिर मैं उस पवित्र आत्मा के रूप पे,
नहीं जा सकते हो तुम फिर ऊपर कहीं इस धाम से!

छोड़ूँगा तो नहीं मैं तुमको अपने किसी खयाल से,
और मुक्त नहीं होने दूंगा मैं तुमको माया के इस जाल से!
मैं खड़ा हूँ राह पर तुम्हारे बनकर एक आसान रास्ता,
हाथ थामोगे तो उठा दूंगा तुम्हारी सच्चाई पर से आस्था!

और तुम नहीं राम कि मुझको तुम मार सकोगे,
न ही तुम हो कृष्ण, न्याय की राह तुम पहचान सकोगे!
न तुम अर्जुन, न तुम भीष्म, न तुम धर्मराज हो,
न तुम लक्ष्मण, न तुम भरत, न रघुवंश तुम आज हो!

कहाँ पर भागोगे जब तुम्हारे मन को मैं हथियूंगा?
कितना पुण्य कर पाओगे जब हर ओर से घिर आऊंगा?
मैं ही था वो जिसने सदियों पहले मंदिरों को जलवाया था,
मैं ही था जिसने नालंदा और तक्षिला को मिटाया था,
मैं ही था वो जिसने मुगलों से खूनी खेल खिलवाया था,
वह भी मैं ही था जिसने चित्तोड़ दुर्ग में माताओं को आग में धकेला था,
और जालियांवाला के खूनी खेल का भी मैं कारण अकेला था!


फिर भी अचंभित होकर डरता हूँ खत्म हो जाऊंगा,
एक उम्मीद की छोटी किरण से भी जलकर भस्म हो जाऊंगा!"










https://www.youtube.com/watch?v=K9ISBTgCjWo&t=82s

Wednesday, 18 March 2020

यह प्रेम नहीं


(इस कविता में जो लिखा है उसका अर्थ तो समझिए ही साथ ही साथ उसके उलट जो आज के युग में होता है वह भी सोचिये)
(कविता को लयबद्ध पद्य की शैली में लिखा है, यदि उस लहजे से पढ़ा जाए तो अलग आनंद मिलेगा 🙂)

काल का चक्र जो चलता है,
किसी के लिए नहीं ये रुकता है,
किसी को ऊंचाई पर पहुंचाता है,
किसी को पैरों तले कुचलता है।


दुनिया में गलत बहुत सी रीति हैं,
क्यों समझते नहीं जीने का नाम युद्ध है, न कि प्रीति है,
संघर्ष की अग्नि में ध्यानमग्न जो होता है
सही समझता है - जीने का अर्थ संघर्ष है, अंधा प्रेम एक कुरीति है।
अब ठहरो! क्या इसका अर्थ जानना चाहोगे?
क्या इस कथन की गहराई को नापना तुम चाहोगे?
यदि हां तो सुनो, सोचो और आत्मदर्शन भी करते जाओ।
जो अब तक समझते थे उसको किनारे करते जाओ।


प्रेम एक शाश्वत विषय है,
तपते जीवन में आश्रय है,
मगर प्रेम का नाम जब लेते हो,
जीवन में क्या क्या कहते और करते हो।
इसकी व्याख्या तो अब धुल सी गयी है,
इस युग के अंधड़ से ज्योत तो इसकी बुझ सी गयी है।


वासना में बंधकर जीना प्रेम नहीं,
किसी को मुश्किलों की मझधार में छोड़ना प्रेम नहीं,
क्या सड़कों पर शाम को भूखे बच्चों को तुमने देखा है?
हाथों में हाथ डाल हंसते नज़रअंदाज़ करते उन सड़कों पर टहलना प्रेम नहीं।
नहीं है प्रेम अपनी शामों को व्यर्थ करना मदिरा अंकित जज्बातों पर,
अरे प्रेम तो है दुश्मन को ले कर मर मिटना भारत की इस माटी पर।
और जिसने सिखाये तुमको इस जमाने के अर्थ हैं उसको ठुकरा दो,
उनके पढ़ाये हुए उन खोखले आदर्शों को तुम दफना दो।
प्रेम नहीं बल्कि अपनापन साधारण मनुष्यों की अभिलाषा है,
प्रेम तो केवल कुछ वफादार जीवों की ही भाषा है।
इस आधुनिक युग का "प्रेम" बस एक ढोंग एक तमाशा है,
प्रेम का सत्य तो बस माता-पिता के कर्मों की परिभाषा है।
प्रेम नहीं समृद्धि में अग्रसर हो मूल्यों को भुलाते जाओ,
और प्रेम नहीं माता-पिता के परिश्रम से कमाए धन को लुटाते जाओ।


प्रेम है जो इस धरती के लिए ही बस जीते हैं,
प्रेम है वो जिनके दिन बस दूसरों के लिए ही बीते हैं,
प्रेम है जो समाज के उद्धार के लिए विष का प्याला पीते हैं।
प्रेम तो आपके सरलतम कार्यों में भी दिखता है,
प्रेम नहीं फेसबुक-इंस्टाग्राम की दुकानों पे बिकता है,
संघर्ष कर स्वयं को मजबूत करना प्रेम है एक,
अपने जीवनसाथी के त्यागों को मानना भर भी प्रेम है एक,
परिजनों की डांट को चुपचाप सुनना भी प्रेम है एक,
हर सुबह अपने-अपने कार्यालयों की तरफ निकलते हो
वृद्धों के लिए अपनी गाड़ी को रोकना भी प्रेम है एक,
सड़कों पर निकलते हुए वो वीर जवानों से भरी गाड़ियां देखी हैं?
नज़र उठाकर कुछ पलों के लिए सलाम करना भी प्रेम है एक।


रोज़ाना के जीवन से हताश जब हो जाते हो,
रात को कराह लेकर जब तुम सो जाते हो,
ऐसी दिनचर्या जीने में भी बलिदान है एक,
आपके कर के पैसों से देश चलता है, यह भी प्रेम है एक।


Friday, 14 February 2020

पार तो फिर भी करना होगा

Inspired from and Dedicated to Shri Atal Bihari Vajpayee

हो राह में यदि आकाश,
सूर्य की तरफ उड़ना होगा,
बीच तड़ित से चमकते बादलों को
पार तो फिर भी करना होगा।

जब नदी में हो वेग गजब,
और नौका फंसी मझधारों में,
धैर्य तो फिर भी धरना होगा,
पार तो फिर भी करना होगा।

विपरीत दिशा की धारा में,
चप्पू चलाते रहना होगा,
प्रखर प्रवाह से टकराएगा पानी तब भी,
पार तो फिर भी करना होगा।

अवरोध बनी हो चट्टानें पथ पर,
उठ, पंख फैला कर उड़ना होगा,
चढ़ कर नहीं तो कूद कर ही सही,
पार तो फिर भी करना होगा।

जीवन नहीं होता किसी के लिए आसान,
जीने का अर्थ समझना होगा,
हाथ बढ़ाकर ही, छीन के अवसर लेना होगा,
पार तो फिर भी करना होगा।

परेशानी-तकलीफें तो आएंगी,
इनसे सीख जीने का आनंद लेना होगा,
हीरा बनने के लिए संघर्ष-अनल में जलना होगा,
पार तो फिर भी करना होगा।

जब भूमि जलते अंगारे हो,
दृष्टि में कहीं न ठंडे किनारे हों,
तब हृदय को पत्थर बना इस अग्निपथ से गुजरना होगा,
यह अग्निपरीक्षा तो देना होगा।

पार तो फिर भी करना होगा
पार तो फिर भी करना होगा।

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